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"ग़ज़ल बोल रही है"

"ग़ज़ल बोल रही है"
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हुकूमत की हक़ीक़त को जो खोल रही है,
ध्यान से सुनना ये ग़ज़ल बोल रही है।

जिसको भी चटकना हो,दमकना हो ,दमक ले
इन्सान की हिम्मत को ग़ज़ल तौल रही है।

इन्सान की करतूत है,क़ुदरत का क्या कुसूर?
उठती लपट चिता की यही बोल रही है।

रह-रह के खनकती हैं टूटी चूड़ियां जिनकी,
सिन्दूर की ख़ामोश फ़ज़ा बोल रही है।

छलकाती थी जो आंख निगाहों से गुलाबी,
उस आंख में शबनम की नमी डोल रही है।

जिसकी रग में चिटकती हुई कलियों की महक थी,
है वो आज भी उदास, ज़हर घोल रही है।

तख़्तो-ताज लिए फिरते हैं सुल्तान-ए-हुकूमत,
उनके लब पे गुलाबों की तरी डोल रही है।

रोम की मानिंद लगी आग जब यहां,
मीठी धुन में कोई बांसुरी भी बोल रही है।

बहते हैं अब मुर्दे यहां लहरों के संग-संग,
गंगा भी अपनी मौज में अब डोल रही है।

'नमस्कार-नमस्कार पतित-पावनी गंगे,\
बह के आई है जो लाश हंस के बोल रही है।

दिखती नहीं वो प्रीति जो अनमोल रही है,
समय की धार में ग़ज़ल भी अब तो डोल रही है।
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2 Comments

kapil sharma

25-May-2021 12:36 AM

Best kavita sir

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Virendra Pratap Singh

25-May-2021 05:35 AM

धन्यवाद कपिल शर्मा जी, बुद्ध पूर्णिमा की पूर्व बेला पर आपके लिए हार्दिक शुभकामनाएं ।

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